महाराष्ट और हरियाणा के चुनाव नतीजों ने मतलब नहीं। बस कह दिया कि मोदी की चुनौती नंबर एक की स्थिति बरकरार क्या मोदी के अपराजेय होने के मिथक हार हो गई या मोदी को हराया जा सकता रखने और सत्ता में वापसी की थी। पार्टी ने को तोड़ दिया है ? राजनीतिक विश्लेषकों है तो बात खत्म। दोनों लक्ष्य हासिल कर लिए। दूसरी ओर का एक वर्ग इसे इसी रूप में देखता है। किसी भी घटना का विश्लेषण संदर्भ से पांच साल की एंटी इन्कम्बेंसी के बाद भी लेफ्ट लिबरल बिरादरी ऐसा फतवा जारी काटकर नहीं किया जा सकता। सवाल है विपक्ष उसे पहले नंबर से हटा नहीं पाया। करने की बहुत जल्दी में है। ऐसे कि इन दो राज्यों के विधानसभा चनाव यही नहीं, हरियाणा में भाजपा के वोट में विश्लेषकों के मुताबिक महाराष्ट में नतीजों का संदर्भ क्या है? संदर्भ यह है कि तीन फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना के गठबंधन को बहुमत साल 2014 से पहले महाराष्ट्र में भाजपा जरूर दो फीसदी वोट की कमी आई, मिलना और हरियाणा में भाजपा का एक चौथे और हरियाणा में तीसरे नंबर की लेकिन यह ना भूलें कि पार्टी इस बार सौ बार फिर सबसे बड़ी पार्टी बनना लेकिन पार्टी थी। मोदी लहर और महाराष्ट्र की 15 सीटें कम पर लड़ी थी।यदि यह विपक्ष की बहुमत से कुछ दूर रह जाना, मोदी की हार साल, हरियाणा की 10 साल और केंद्र जीत और मोदी-शाह की हार है तो ऐसा है। हार-जीत के खेल में कोई हारता है तो सरकार की 10 साल की जबर्दस्त एंटी सोचने वालों की समझ की बलिहारी। ये कोई जीतता भी है। यदि मोदी हार गए तो इन्कम्बेंसी के बते दोनों राज्यों में वह पहले ऐसे लोग हैं जो अपनों की गर्दन कटने का जीता कौन? 54 सीटें पाने वाले शरद नंबर की पार्टी बन पाई। इस चनाव में पांच शोक मनाने की बजाय विरोधी की उंगली पवार या 31 सीटें पाने वाले भूपेंद्र सिंह साल की एंटी इन्कम्बेंसी भाजपा के कटने का जश्न मनाने में यकीन करते हैंहडा? जाहिर है कि ऐसे लोगों को तथ्यों से खिलाफ थी। उसके सामने सबसे बडी यह भी ध्यान रहे कि इन पांच सालों में
दोनों राज्यों में तीन बड़े आंदोलन हुएइन मानती है मोदी नाम केवलम यानी हम सबसे ऊपर है। राज्यों के चुनाव नतीजों को मोदी की मंत्री बन गए तो अब जनता ठेंगे परमोदी शिवसेना एक ऐसी पार्टी है जो सत्तारूढ़ हार और विपक्ष की जीत के रूप में पेश जी तो चुनाव जिताने के लिए हैं हीऔर विरोधी दल की भूमिका एक साथ किया जाना राजनीतिक विश्लेषण का नया जब यह सोच 15 साल (मध्य प्रदेश और चाहती है। वह भीख भी मांगती है और तरीका है। इसका सिलसिला गुजरात छत्तीसगढ) से चल रही हो तो मोदी-शाह गाली भी देती है। उसे जो मिलता है, उससे विधानसभा चुनाव के समय से शुरू हुआ के लिए भी कठिन हो जाता है। इसी तरह वह कभी संतुष्ट नहीं होती। चुनाव में अपने था, जब स्पष्ट बहुमत से जीतने वाली यदि पांच साल में लुटिया डुबोने वाली खराब प्रदर्शन से वह परेशान नहीं होतीभाजपा को इसलिए पराजित घोषित कर वसुंधरा राजे सिधिया हों तो मोदी-शाह के उसके वोट भाजपा से ज्यादा घटे और दिया गया कि उसकी सीटें कुछ कम हो गई लिए रफ करना और कठिन हो जाता है। उसकी स्ट्राइक रेट भी भाजपा से खराब है। और पिछले करीब तीन दशक से सत्ता तक मतादाता ने ऐसे नेताओं को संदेश दिया है शिवसेना को भाजपा से लगभग आधी न पहुंच पाने वाली कांग्रेस को विजेता के कि भरोसा मोदी-शाह पर है, आप पर सीटें मिली हैं, फिर भी उसे ढाई साल के रूप में पेश किया गयानहीं। लिए मुख्यमंत्री पद चाहिए। उसकी जनसंघ से भाजपा के राजनीतिक सफर में ऐसे में देवेंद्र फडणवीस और मनोहरलाल समस्या यह है कि लंबे समय तक देने पार्टी जिस भी राज्य में पहली बार सत्ता में खट्टर की जीत की अहमियत और बढ़ वाली पार्टी से अब वह मांगने वाली पार्टी आई, वह अगले चुनाव में वापसी नहीं कर जाती है। पार्टी के लिए भी संदेश है कि हो गई है। यह बात उसे हजम नहीं हो रही सकी। वह चाहे 1977 में मध्य प्रदेश, मंत्री काम करने के लिए होते हैं, ऐशो- है। राजस्थान, दिल्ली और हिमाचल प्रदेश हो आराम के लिए नहीं। भाजपा के लिए इन शिवसेना के साथ गठबंधन में विधानसभा या फिर 1991 में उत्तर प्रदेश या 2008 में दो राज्यों के जनादेश का यह भी संदेश है चुनाव लड़ना भाजपा की रणनीतिक भूल कर्नाटक हो। गुजरात इस मामले में अब कि जब बात मोदी की हो तो मतदाता थी जिसका खामियाजा वह भुगत रही है। तक एकमात्र अपवाद था। उत्तराखंड और मुकाबले में खड़े किसी नेता पर भरोसा अब देखना यह है कि भाजपा 2014 की छत्तीसगढ़ का जिक्र इसलिए नहीं कि ये नहीं करता, पर जब मनोहरलाल खट्टर के तरह अपने रुख पर कायम रहती है या दोनों राज्य उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश का सामने भूपेंद्र सिंह हड़ा हों और देवेंद्र शिवसेना की ब्लैकमेलिंग के आगे झुक हिस्सा रह चुके हैं। इतना ही नहीं, भाजपा फडणवीस के सामने शरद पवार हों तो जाती है? महाराष्ट के बाद अगला मोर्चा संगठन की दृष्टि से भी इन राज्यों की मुकाबला वैसा एकतरफा नहीं रहता। यह बिहार में खुलेगा। भाजपा शिवसेना के महाराष्ट और हरियाणा से तुलना नहीं की मोदी पर भरोसे का ही नतीजा है कि पवार आगे झुकी तो उसे बिहार में जनता दल जा सकतीतो क्या इन दोनों राज्यों में और हुड्डा सारी ताकत लगाकर भी जीत के यूनाइटेड के सामने भी झुकना पड़ेगा। भाजपा में कोई समस्या नहीं है। ऐसा करीब भी नहीं पहुंच पाए। भाजपा के आखिर जब शिवसेना पांच महीने में ही कहना सच्चाई से भागना होगा। दरअसल राजनीतिक विस्तार के रास्ते की बाधा भूल गई कि लोकसभा में उसे जो सीटें समस्या पुरानी है, लेकिन वह मोदी-शाह केवल सामाजिक संतुलन को साधने और मिलीं, वे उद्धव ठाकरे के नहीं मोदी के के युग में भी कम नहीं हो रही है। भाजपा उसे मजबूत बनाने की ही नहीं है। कुछ नाम पर मिली हैं तो जनता दल यूनाइटेड का एक विशेष गुण है। सत्ता में आते ही सहयोगी भी हैं। इसमें शिवसेना का नाम क्यों याद रखेगा? उसकी सरकार के मंत्री पहले अपने कार्यकर्ताओं को नाराज करते हैं, फिर आम जनता को। इसके बाद चुनाव आतेआते दोनों मिलकर पार्टी को हराते हैं। मोदी-शाह के युग में फर्क इतना हुआ है कि यह नुकसान अब मंत्रियों तक सीमित हो गया है। दोनों राज्यों में हारने वाले मंत्रियों की संख्या और पार्टी की कम हुई सीटों की संख्या गिन लीजिए तो बात समझ में आ जाएगी। मतलब यह कि जितने मंत्री, लगभग उतनी सीटें हारना तो तय है।